Tuesday, 4 February 2014

फिर "आप" को किसने भ्रष्ट किया?






वे जो कहते थे व्यवस्था बदल देंगे,
वे आज खुद बदले से नज़र आते है,
कभी ढाते है जुल्म रंगभेद का,
कभी धरने पे बैठ जाते है।

वे जो सब्जबाग दिखाते थे,
खुशहाली के, बदलाव के,
सिरमौर बने बैठे है क्यों,
अराजकता के, अलगाव के?

वे जो कभी सड़क पे पिटते थे,
महिला अधिकार की जंग में,
क्यों सत्ता के लालच में वे,
जा रंग गए खाप के रंग में?

वे आरोप कभी जो गड़ते थे,
तो दस्तावेज दिखाते थे,
बिना सबूत के कभी नहीं,
इलज़ाम वो कोई लगाते थे।

फिर ऐसा क्या बदल गया?
क्यों बदल गयी हर परिभाषा?
क्यों बना दिया इन लोगो ने,
आम आदमी को एक तमाशा?

बदलाव के सपने बेच कर,
क्यों ऐसा घृणित छल रचा?
भटका के युवा को कर्म से,
ये कैसा आपने कल रचा?

क्यों संयम आपका छिन्न हुआ,
है लोकतंत्र, क्यों भुला दिया?
न जाने कितने प्रश्नों को,
बस गाली देके सुला दिया.

क्यों प्रश्न नही सहते है आप,
जब प्रश्न करना सिखाया था,
करनी ही अगर मनमानी तो,
स्वप्न स्वराज का क्यों दिखाया था?

न जाने कितनी उम्मीदों को,
अहंकार ने आपके नष्ट किया,
भ्रष्टाचार से लड़ने आये थे,
फिर "आप" को किसने भ्रष्ट किया?
फिर "आप" को किसने भ्रष्ट किया?

2 comments:

  1. Wonderful poem! I hope AAP introspects over its actions and makes the Aam Aadmi party proud in the months to come! I will be very happy if it does that!

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  2. I mean i hope it makes the Aam Aadmi* proud! (erratum)

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