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उठ!
उठ के क्यों तू थक गया, मंजिल तेरी है सामने,
क्यों तुझे दरकार है, आये कोई तुझे थामने ?
क्यों वनों में तू भटकता, ढूंढता बैसाखिया ?
क्यों तेरे अम्बर को धुंधला कर दिया है शाम ने ?
क्या ये काली राती है, या नैन तेरे बंद है,
क्यों तेरा ये तेज मधम, हौंसला यु मंद है,
तू बिना पंखों के भी है लांघ सकता खाईया,
जीतना स्वयं से है, स्वयं से ही ये द्वन्द है,
पथ पे तेरी आएँगी दुश्वारिया हर कदम,
रक्त-रंजित होगा तू और ठोकरे न होंगी कम,
जो रुका तू आंस बांधे, फिर नहीं बढेगा तू,
एकला चला तू चल, किसी के भी लिए न थम.
उठ!
उठ के तूने सीखा है, नही कभी भी हारना,
तुझे डिगा सकेगी न, कभी कोई प्रताड़ना,
खड़ा हिमालय ताकता, है फेकता चुनौतिया,
है लक्ष्य तेरा हर शिखर पे अपने झंडे गाड़ना,
तू स्वयं में पूर्ण है, अथाह तेरा ज्ञान है,
भविष्य तेरा सूर्य सा, तेजस्वी है, महान है,
समस्त श्रृष्टि तेरे रोम-रोम में है रची,
तुझी में ब्रम्हा, विष्णु और महेश विद्वमान है.
...तुझी में ब्रम्हा, विष्णु और महेश विद्वमान है !
अति सुन्दर
ReplyDeleteबेहतरीन! आज ही मांझी फ़िल्म देख कर आया। लाजवाब लिखा है आपने।
ReplyDeleteबेहतरीन! आज ही मांझी फ़िल्म देख कर आया। लाजवाब लिखा है आपने।
ReplyDeleteबेहतरीन! आज ही मांझी फ़िल्म देख कर आया। लाजवाब लिखा है आपने।
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