Thursday, 15 August 2013

आज़ादी है, आज़ाद नहीं!


आज़ादी है, आज़ाद नहीं!
आबादी है, आबाद नहीं!

पिंजरे से भले हो निकल चुके,
पर कटे हुए, अब तड़प रहे,
वो ओड़ सफेदी खादी की,
हमें लूट रहे, सब हड़प रहे,
सड़को पे अब भी सोते है,
और भूख से बच्चे रोते हैं,
वो बात करें आकाशों की,
हम दस्त से बचपन खोते है,
गलियों में आबरू लुटती है,
और बेटियां कोख में मरती है,
क्या इंसान अब तो देवी भी,
यहाँ आने से भी डरती है,
वो जात-धर्म का खेल रचे,
हम काट रहे है अपनों को,
देखे जो अमर शहीदों ने,
वो लूट रहे उन सपनो को,
है देश हुआ अब खंडित है,
बिहार-मराठा लड़ते है,
वो गीत एकता के जो थे,
बस पन्नो में अब सड़ते है,
अब तो नेता ही गुंडा है,
और गुंडे बन गए नेता है,
खद्दर तानाशाह जुल्म करे,
और खाकी रिश्वत लेता है,
हर बरस ये दिन जब आता है,
सीना ठोके हम गाते है,
उड़ने की बातें करते है,
दलदल में धसते जाते है,
बस क्रिकेट के हरे मैदानों में,
देशप्रेम अब ज़िंदा है,
आज़ादी का जश्न तो फ़िल्मी है,
सच है के हम शर्मिंदा है.

3 comments:

  1. No words to describe what Im feeling. I am speechless! This is a true, and a hard core representation of today's Indian society. Absolutely brilliant! Salute to you, Archwordsmith!

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  2. Truly Amazing!!! You are gifted. And your words are powerful! Continue your fight! You will inspire many!!

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  3. wah wah.....bahut hi khoobsurat lines hain.....Succhi aur Dil Se

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