चीखती रातें, रक्त-रंजित कटारे,
जलते आशियाने, सिसकती दीवारें,
याद है आज भी, वो जख्म ताज़ा है,
चुभते है तेरी कश्मीरियत के नारे.
मेरी ज़मीन से, मुझे बेदखल कर,
खुश तू हुआ था, जला के मेरा घर,
जो आज में लौटना चाह रहा हूँ,
तेरे प्यार में क्यों, दिखता मुझे डर?
तू जो आज मुझको, भाई कह रहा है,
मेरी ही चिता पे घर बना रह रहा है,
ज़रा खोल देख तेरे घर की वो टोटी,
आज भी उसमें मेरा, लहू बह रहा है.
तेरे खेल से, तेरी हर चाल से,
वाकिफ हू कातिल, तेरे हर जाल से,
बहुत रह चुका माँ के आचल से वंचित,
है लौटना अब तो हर हाल में,
जितने जतन तुझे, करने है करले,
स्वांग तुझे जितने आतें है रच ले,
गूंजेगी फिर वादी में वो घंटियाँ,
बारूद मेरे मंदिर में जितना हो भर ले.
न जिन्ना की है ये विरासत,
न गिलानी की ये जागीर है,
श्यामा प्रसाद की है ये समाधि,
ऋषि कश्यप का ये कश्मीर है,
मेरा कश्मीर है.