Sunday, 18 October 2015

साहित्य अब चिल्लाएगा

सल्तनत के पैरो में पायल बन को जो बज जाए,
कलियुग में वही कलम, साहित्य बन के बस जाये,
बदली सल्तनत जो, सर से हाथ उठ जायेगा,
साहित्य तब चिल्लाएगा-2

भाई भाई को मारता रहा, बहनो की आबरू लुटती रही,
भ्रष्टाचार के दलदल में, माँ भारती तो झुकती रही,
आज़ादी नीलाम हुयी, एक रजवाड़े की ग़ुलाम हुई,
मगर साहित्यकारों के जीवन में कभी न शाम हुयी,
जो चटकी रजवाड़े की पहली ईट, अँधेरा छाएगा,
साहित्य तब चिल्लाएगा-2

खून में डूब चौरासी, लहूलुहान हुआ भागलपुर,
साहित्य के गलियारों में, बजते रहे श्रद्धा के सुर,
चीखे उनकी चौखट पे, टकरा के दम तोड़ गयी,
सरकारी सम्मान से दब के, रूहे उम्मीदें छोड़ गयी,
जिस कलम से लार थी टपकी, वो आज लहू बहायेगा,
साहित्य अब चिल्लायेगा,
नमक का क़र्ज़ चुकाएगा।
                - अर्चित लखनवी (Archwordsmith)

Saturday, 22 August 2015

उठ ! (Rise Up)

Image courtesy : Google images

उठ!
उठ के क्यों तू थक गया, मंजिल तेरी है सामने,
क्यों तुझे दरकार है, आये कोई तुझे थामने ?
क्यों वनों में तू भटकता, ढूंढता बैसाखिया ?
क्यों तेरे अम्बर को धुंधला कर दिया है शाम ने ?
क्या ये काली राती है, या नैन तेरे बंद है,
क्यों तेरा ये तेज मधम, हौंसला यु मंद है,
तू बिना पंखों के भी है लांघ सकता खाईया,
जीतना स्वयं से है, स्वयं से ही ये द्वन्द है,
पथ पे तेरी आएँगी दुश्वारिया हर कदम,
रक्त-रंजित होगा तू और ठोकरे न होंगी कम,
जो रुका तू आंस बांधे, फिर नहीं बढेगा तू,
एकला चला तू चल, किसी के भी लिए न थम.

उठ!
उठ के तूने सीखा है, नही कभी भी हारना,
तुझे डिगा सकेगी न, कभी कोई प्रताड़ना,
खड़ा हिमालय ताकता, है फेकता चुनौतिया,
है लक्ष्य तेरा हर शिखर पे अपने झंडे गाड़ना,
तू स्वयं में पूर्ण है, अथाह तेरा ज्ञान है,
भविष्य तेरा सूर्य सा, तेजस्वी है, महान है,
समस्त श्रृष्टि तेरे रोम-रोम में है रची,
तुझी में ब्रम्हा, विष्णु और महेश विद्वमान है.

...तुझी में ब्रम्हा, विष्णु और महेश विद्वमान है !

Monday, 13 July 2015

ये मेरा कश्मीर है.




चीखती रातें, रक्त-रंजित कटारे,
जलते आशियाने, सिसकती दीवारें,
याद है आज भी, वो जख्म ताज़ा है,
चुभते है तेरी कश्मीरियत के नारे.
मेरी ज़मीन से, मुझे बेदखल कर,
खुश तू हुआ था, जला के मेरा घर,
जो आज में लौटना चाह रहा हूँ,
तेरे प्यार में क्यों, दिखता मुझे डर?
तू जो आज मुझको, भाई कह रहा है,
मेरी ही चिता पे घर बना रह रहा है,
ज़रा खोल देख तेरे घर की वो टोटी,
आज भी उसमें मेरा, लहू बह रहा है.

तेरे खेल से, तेरी हर चाल से,
वाकिफ हू कातिल, तेरे हर जाल से,
बहुत रह चुका माँ के आचल से वंचित,
है लौटना अब तो हर हाल में,
जितने जतन तुझे, करने है करले,
स्वांग तुझे जितने आतें है रच ले,
गूंजेगी फिर वादी में वो घंटियाँ,
बारूद मेरे मंदिर में जितना हो भर ले.

न जिन्ना की है ये विरासत,
न गिलानी की ये जागीर है,
श्यामा प्रसाद की है ये समाधि,
ऋषि कश्यप का ये कश्मीर है,
मेरा कश्मीर है.

Sunday, 12 July 2015

The wail of Jesus




Yes I am sad,
Hurt and confused,
You are my creation,
I wish I could refuse,
I watch you wrap me up,
And sell me like a soap,
Is this why I created you?
You make me lose the hope,
I watch your sheer idiocy,
This delusion you call faith,
I keep curbing my anger,
You keep tempting the fate,
Why do you think I need?
Your menial propagation,
I am universal,
Don't need your adulation,
I keep sending the warnings,
But you don't get it still,
Call me by any name you like,
I exist and forever will.

Sunday, 5 July 2015

A tale of 2 journalists

1 was murdered,
burnt alive,
he killed me,
on camera he cried,
his soul departed,
hope intact,
to get me justice,
my brethren will rise,
he hovered over the lutyens,
like a cloud ready to burst,
his tears poured out,
his death was never heard.

the second expired,
heart attack maybe,
or was he poisoned,
the truth seemed hazy,
lutyens exploded,
obituaries read,
primetime screamed,
justice was pledged,
the brethren promised,
the 2nd who deceased,
while the 1st watched,
his character being peeled.

And this is the tale of,
2 journalists who died,
why was one ignored,
while for other the pen cried?
was it because the former,
had died in a secular state?
while the latter was in communal,
though he may have died of fate?
this dear friends is how,
the lutyens plays the game,
the tale of 2 journalists,
will always be the same.

Saturday, 3 January 2015

तेरा खून न हिन्दुस्तानी है


(जिस तरह से आज ये खबर आने के बाद की भारतीय तट रक्षकों नै एक संदिग्ध पाकिस्तानी नौका को रोकने की कोशिश की और उस नौका के सवारों नै अपनी ही नौका में आग लगा ली, हर भारतीय का सर गर्व से ऊंचा हो गया. वही कही न कही २६/११ के जख्म भी हरे हो गए. परन्तु ऐसे वक़्त में भी कुछ कलम चलाने वाले बिना सत्य सामने आने की प्रतीक्षा किये, अपने ही सैन्य दलों के ऊपर प्रश्नचिन्ह लगाने लगे. यह देख के दिल में विचार आया की ऐसे वक़्त में देश की सेवा में लगे एक सैनिक के मन में क्या विचार आते होंगे. बस इसी की एक बानगी पेश है. उम्मीद है की ये कलम के सौदागर अगर मेरी कविता पड़ेंगे तो शायद उनके मृत ज़मीर में कुछ हलचल होगी.)


ए लुटयेंस के लुटेरे
तेरा ज़मीर क्या पानी है?
क्यों तेरे शब्दों में हर पल,
देशद्रोह की वाणी है?
क्यों अपने ही रक्षक पे,
संदेह बाण तू दागे है?
मेरे घर का मातम छोड़,
दुश्मन की दावत में भागे है.
क्यों तेरा खून न खौले,
जब हम सरहद पे मरते है?
तेरी रक्षा में जागे हम,
फिर क्यों तुझी को अखरते है?
क्यों तेरे लेखों में हमको,
दिखती घोर निराशा है?
क्यों मेरे हत्यारे से,
तुझको अमन की आशा है?
न बोलूँगा बस कह दे मुझसे,
तेरा खून न हिन्दुस्तानी है,
भारत तेरी माता नहीं,
और पिता कोई पाकिस्तानी है,

तेरा पिता कोई पाकिस्तानी है.