सल्तनत के पैरो में पायल बन को जो बज जाए,
कलियुग में वही कलम, साहित्य बन के बस जाये,
बदली सल्तनत जो, सर से हाथ उठ जायेगा,
साहित्य तब चिल्लाएगा-2
भाई भाई को मारता रहा, बहनो की आबरू लुटती रही,
भ्रष्टाचार के दलदल में, माँ भारती तो झुकती रही,
आज़ादी नीलाम हुयी, एक रजवाड़े की ग़ुलाम हुई,
मगर साहित्यकारों के जीवन में कभी न शाम हुयी,
जो चटकी रजवाड़े की पहली ईट, अँधेरा छाएगा,
साहित्य तब चिल्लाएगा-2
खून में डूब चौरासी, लहूलुहान हुआ भागलपुर,
साहित्य के गलियारों में, बजते रहे श्रद्धा के सुर,
चीखे उनकी चौखट पे, टकरा के दम तोड़ गयी,
सरकारी सम्मान से दब के, रूहे उम्मीदें छोड़ गयी,
जिस कलम से लार थी टपकी, वो आज लहू बहायेगा,
साहित्य अब चिल्लायेगा,
नमक का क़र्ज़ चुकाएगा।
- अर्चित लखनवी (Archwordsmith)