Friday, 7 November 2014

हिन्दू नज़र आना ज़रूरी है!




समय के संग बहता हू मैं,
सदा ही चुप रहता हू मैं,
प्रेम के बदले प्यार के,
सन्देश सदा देता हू मैं,
मगर अब हिम्मत जताना जरूरी हैं,
हिन्दू हो तो हिन्दू नज़र आना ज़रूरी है!

तेरे धर्म का मैं मान करू,
मेरे धर्म का तू सम्मान करे,
पर अब मैं चुप न रहने का,
जो काटेगा तू मेरे गले,
मैं बिस्मिल बन लड़ जाऊंगा,
जो तू मेरा अशफाक बने,
पर अब मैं चुप न रहने का,
जो तू चालें औरंगजेब चलें.

बटा हुआ हू जात से,
अपनों के भीतर-घात से,
अपने ही देश में मुर्दा हू,
है निकलना इस हालात से,
अब धर्म को अपने अपनाना ज़रूरी है,
हिन्दू हो तो हिन्दू नज़र आना ज़रूरी है!

मेरे धर्म की जो खामियां,
मिल-बांट के हम मिटायेंगे,
पर शब्द तेरे, तेरे ताने,
हम चुप कर सह नहीं पाएंगे,
होली में रंग हम खेलेंगे,
दीपावली भी मनाएंगे,
तू लाख कहे, और लाख लिखे,
हम शान से जीते जायेंगे.

STOP ATTACKING OUR FESTIVALS

इन धर्म के ठेकेदारों से,
इंसानियत के गद्दारों से,
अब पीछा हमें छुडाना है,
नैतिकता के पहरेदारों से,
देवी को फिर सम्मान दिलाना ज़रूरी है,
हिन्दू हो तो हिन्दू नज़र आना ज़रूरी है!

बंधन में न बांधो हमें,
जंजीरे तोड़ते जायेंगे.
हम पूजन कर माँ सरस्वती का,
प्रेम दिवस भी मनाएंगे,
मा भारती को हम पूजेंगे,
मंदिर में शीश नवाएँगे,
चाहे चलना पड़े हमे लाखो मील,
कैलाश पे चढ़ के आएंगे।

अब बनना जिम्मेदार है,
माँ धरती करे पुकार है,
जो तड़प रही माँ गंगा है,
उसका करना उद्धार है,
यमुना का क़र्ज़ चुकाना ज़रूरी है,
हिन्दू हो तो हिन्दू नज़र आना ज़रूरी है.

तू नाम का बस अब भक्त न बन,
वो कर्म भी कर जो हिन्दू हो,
गीता में कान्हा रच गए जो,
वो धर्म ही तेरा बिंदु हो,
कौरव के तू अब काम न कर,
अब न हो कोई चीरहरण,
अपनों का श्रवण कुमार तू बन,
दूजो का दानवीर कर्ण।


Disclaimer: This poem is in no way an attempt to create divide between any two religions, communities or people. The whole poem is just an appeal for the Hindus to unite, introspect and change what ails our glorious heritage. It is an appeal to shun the pseudo-secularism but at the same time maintain religious harmony without losing self-respect. It is an appeal to get rid of the self-appointed guardians of religion, to reinstate the status of women as equals as mentioned in our Vedas, to look within and reinstate the pride of our religion, our culture and our rivers. It is a request to all Hindus to follow the doctrine of karma and dharma and not indulge in mere show of religious symbolism for sake of religion. In spite of all said and done if you still indulge in polluting our rivers, if you still believe that mere fasting for 9 days a year can rid you of all your sins, if you still stay a slave to fake babas and godmen, then you are not even an Indian, let alone being a Hindu.

BE A PROUD HINDU AND NOT A BIGOTED ONE, AND DEFINETLY NOT A PSEUDO-SECULAR LIBTARD.


2 comments:

  1. You missed the whole point of this poem. Nowhere am i refuting science. The major point here is to practice the doctrine of karma, as explained in bhagvad gita. Karm as in the importance of work, effort and labour

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  2. अद्भुत लिखा है 👌👌
    कविता का भावार्थ अकाट्य है।

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