(जिस तरह से आज ये खबर आने के बाद की भारतीय तट रक्षकों नै एक संदिग्ध पाकिस्तानी नौका को रोकने की कोशिश की और उस नौका के सवारों नै अपनी ही नौका में आग लगा ली, हर भारतीय का सर गर्व से ऊंचा हो गया. वही कही न कही २६/११ के जख्म भी हरे हो गए. परन्तु ऐसे वक़्त में भी कुछ कलम चलाने वाले बिना सत्य सामने आने की प्रतीक्षा किये, अपने ही सैन्य दलों के ऊपर प्रश्नचिन्ह लगाने लगे. यह देख के दिल में विचार आया की ऐसे वक़्त में देश की सेवा में लगे एक सैनिक के मन में क्या विचार आते होंगे. बस इसी की एक बानगी पेश है. उम्मीद है की ये कलम के सौदागर अगर मेरी कविता पड़ेंगे तो शायद उनके मृत ज़मीर में कुछ हलचल होगी.)
ए लुटयेंस के लुटेरे
तेरा ज़मीर क्या पानी है?
क्यों तेरे शब्दों में हर पल,
देशद्रोह की वाणी है?
क्यों अपने ही रक्षक पे,
संदेह बाण तू दागे है?
मेरे घर का मातम छोड़,
दुश्मन की दावत में भागे है.
क्यों तेरा खून न खौले,
जब हम सरहद पे मरते है?
तेरी रक्षा में जागे हम,
फिर क्यों तुझी को अखरते है?
क्यों तेरे लेखों में हमको,
दिखती घोर निराशा है?
क्यों मेरे हत्यारे से,
तुझको अमन की आशा है?
न बोलूँगा बस कह दे मुझसे,
तेरा खून न हिन्दुस्तानी है,
भारत तेरी माता नहीं,
और पिता कोई पाकिस्तानी है,
तेरा पिता कोई पाकिस्तानी है.