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Monday, 5 August 2013

झाड़ू

सुबह सवेरे देखो, घर घर में होती चालू है,
धुल उड़ाए, स्वछ बनाये, ताकतवर ये झाड़ू है,
जात न देखे, धर्म न देखे, कर्म ही बस ये जाने है,
क्या मंदिर, क्या मस्जिद, ये तो मानवता को माने है,
हो धनवान का बंगला लेकिन, धूल को ये न माफ़ करे,
झाड़ू न जाने भेद भाव, निर्धन की चौखट भी साफ़ करे,
छत से चिपके वो जाले देखो, है अहंकार उचाई का,
इक झटके में हवा है होते, जो वार पड़े सच्चाई का,
बिस्तर के नीचे छुप बैठी जो, धूल घात लगायें है,
अँधेरे से लड़ के झाड़ू, उसको भी दूर भगाएं है.

ये ना सोचों की झाड़ू, बस धूल से जंग पे जाती है,
ये न सोचों की झाड़ू, बस भ्रम के जाले हटाती है,
उन चूहों की खैर नहीं,जो कुतरे भीतर से घर को,
अंत करे उस दुश्मन का, आ जायें अपनी पे गर तो,
जयचंदों की फौज पे ये, पड़ जाती अकेले भारी है,
 तेरा-मेरा क्या करना, झाड़ू से सबकी यारी है,
अब आम आदमी उठा चुका, कुछ करने की ठानी है,
कॉक्रोचो और कीड़ो से, दुश्मनी इसकी पुरानी है,
 जो थाम ले उसकी मदद करें, कभी सरल कभी झगडालू है,
लेती लोहा ये बिना डरे, है वीर बड़ी ये झाड़ू है!!