Working with words
A collection of my poems for you to read and ponder. If you don't get the message, the moral embedded in my words then either I have failed as a poet or you have failed as a human.
Monday, 6 April 2020
सिर्फ दीपक नही जलवाया है.
Thursday, 2 August 2018
स्वास्थ्य विभाग
आशा ने घर घर जा कर के ओ.आर.एस थमाना है,
अगस्त 10 से बच्चो को कृमि मुक्त भी बनाना है,
और उधर देखो पोलियो की दवा भी लाई है,
13 अगस्त से याद रखना, सघन आई एम आई है,
उसके ऊपर स्कूल मदरसे की सूची भी बनानी है,
न जाने और कौन से कार्यक्रम करवाने की ठानी है,
गुड़ में गोबर, गोबर में गुड़ कही न हो जाये,
ओ.आर.एस घर घर पिला, आशा पोलियो न थमा आये,
देखो कही न एल्बेंडाजोल पानी मे घुलवा दे वो,
IMI के हेड काउंट में स्कूल के बच्चे चढ़ा दे वो,
खैर चलो हमको क्या करना, जो होना है वो होना है,
ऐसी कमरों में जब बने योजना, तो गाव में सबको रोना है।
Wednesday, 5 October 2016
मैं कलाकार हूँ
मरने दो, मरने दो,
कुछ आशियाने उजड़ने दो,
मैं खुश हूं अपने बंगले में,
सरहद पे ख्वाब बिखरने दो।
मैं कलाकार हूं, मुझको क्या,
मेरी कोई सरहद नही,
मैं खेल रहा हूँ खजानों में,
पर भूख की कोई हद नही,
भले दुश्मन घर में घुस आए,
और करे गोलियों की बौछार,
सरहद को मगर न बंद करो,
मत बन्द करो मेरा व्यापार,
मुझे इस सबसे रखो परे,
किसी उद्धघाटन में बुला लेना,
कही नाचना हो, कही गाना हो,
तो दाम सही लगा लेना।
मैं अमन दूत, मैं हूं महान,
मेरे काम के आगे क्या कुछ जान,
मत छेड़ो मेरी दुनिया को,
चाहे बन जाए मुल्क ये शमशान,
भले रोज़ सरहद से आये,
टूटी लाठी किसी माता की,
लिपटी तिरंगे में पहुचे,
मुर्दा खुशियां किसी ब्याहता की,
मुझको क्या जो कोई मर गया,
सेना में क्यों गया था वो,
मैं कलाकार मेरा काम बड़ा,
करगिल पे फिल्म बनाने दो।
Tuesday, 4 October 2016
आगाज
वो भारत अब नही रहा, जो हाथ बाँध के बैठा था,
वो भारत अब नही रहा, जो गोली खाता रहता था,
एक नया आगाज़ है ये, तुम हद में रहना शुरू करो,
घुस के मारेंगे अब तो, बहुत सहा अब तुम डरो।
तुम ने सोच लिया था कि, खून हमारा पानी है,
तुम ने ठान लिया था कि, हस्ती हमारी मिटानी है,
हम फिर भी उम्मीद में थे, थे खड़े गुलाब लिए हाथो में,
तुम खंजर भोक रहे थे पर, हम फसे हुए थे बातों में,
धीरज को हमारे समझ लिया, था तुमने हमारी कमजोरी,
देने को ज़ख्म हमे तुमने, कोई कसर थी नही छोड़ी,
पर भूल गए की दिल्ली में, एक शेर हमने भेजा है,
वो इटली का रोबोट नही, भारत माता का बेटा है,
सेना के हाथों में बंधी हुई, ज़ंजीर को उसने तोड़ दिया,
तेरे ही घर में घुस के हमने, तेरी कायर सेना को फोड़ दिया,
अब वक़्त नही बचा तेरा, बस उलटी गिनती शुरू करो,
एक नया आगाज़ है ये, बस बहुत हुआ अब तुम मरो।
Saturday, 24 September 2016
Zombiephobic
A "Liberal" welcome |
Let 'em burn down your culture
Don't resist the infestation
Let them pick you like a vulture
There is nothing wrong with them,
They just want all humans dead,
They are poor mental patients,
Who want to bleed you red,
It has nothing to do with a virus,
All viruses are the same,
They burned their lands to ashes,
So they come here to maim,
Please let them in your house,
They are hungry and sick,
And if you don't open the door,
You'll be branded zombiephobic.
The Virus spreads |
The Invasion |
You are expected to bend,
Compliance is expected,
Your life will start to rend,
And if you do protest,
Liberals will shout you down,
Force you into a silence,
As zombies tear your town,
The landscape will change,
To suit their bloodied needs,
Laden with liberal guilt,
You'll be forced to concede,
So let them take a bite,
As the apocalypse ticks,
You have nowhere to hide,
Die! You zombiephobic.
The Future |
Saturday, 20 August 2016
Enemies in my home
Why do I leave my family behind?
Who is it I am trained to fight?
Answers are all that I try to find.
I am wearing a vest, so his bullets won't hurt me,
And yet I fall down, bleeding through my back,
Disbelief in eyes, hollow in my chest,
I feel a searing pain, shooting through my soul,
You can treat my wounds, but I'll never be whole,
I gunned down a foe, just before I fell,
I watch you cry for him, Why? I cannot tell.
Tell me for whom I sacrifice?
How do I end up being ignored?
Tell me how do you infer,
As I fall bleeding down on floor.
But I don't see the reason, for your enmity,
I can fight a war, I can brave the bombs,
Sadly am not trained to face the enemy's pawns.
Tell me am I wrong, in defending you,
I read your words demonishing, all that I do,
Who do I take a bullet for, am not really sure,
There's an enemy in my home, like I've never faced before.
Sunday, 18 October 2015
साहित्य अब चिल्लाएगा
सल्तनत के पैरो में पायल बन को जो बज जाए,
कलियुग में वही कलम, साहित्य बन के बस जाये,
बदली सल्तनत जो, सर से हाथ उठ जायेगा,
साहित्य तब चिल्लाएगा-2
भाई भाई को मारता रहा, बहनो की आबरू लुटती रही,
भ्रष्टाचार के दलदल में, माँ भारती तो झुकती रही,
आज़ादी नीलाम हुयी, एक रजवाड़े की ग़ुलाम हुई,
मगर साहित्यकारों के जीवन में कभी न शाम हुयी,
जो चटकी रजवाड़े की पहली ईट, अँधेरा छाएगा,
साहित्य तब चिल्लाएगा-2
खून में डूब चौरासी, लहूलुहान हुआ भागलपुर,
साहित्य के गलियारों में, बजते रहे श्रद्धा के सुर,
चीखे उनकी चौखट पे, टकरा के दम तोड़ गयी,
सरकारी सम्मान से दब के, रूहे उम्मीदें छोड़ गयी,
जिस कलम से लार थी टपकी, वो आज लहू बहायेगा,
साहित्य अब चिल्लायेगा,
नमक का क़र्ज़ चुकाएगा।
- अर्चित लखनवी (Archwordsmith)